राजपुताने की आन है राणा,
राजपुताने की शान है राणा,
वीरों के लिए एक पैगाम है राणा,
भारत के वीर पुत्र का नाम है राणा||
फीका पड़ता था तेज़ सुरज का, जब माथा ऊंचा तु करता था।
फीकी हुई बिजली की चमक, जब-जब प्रताप आंखे खोला करता था||
इन ओजस्वी पंक्तियों से आपको अंदाजा तो लग ही गया होगा… हम किसकी बात कर रहे हैं… आज जनहित टाइम्स और पूरा विश्व राजा महाराणा प्रताप को उनके जन्मदिवस पर याद कर रहा है… महाराणा प्रताप की वीरता और साहसिक कहानियों का वर्णन तो कई इतिहासकारों ने अपनी लेखनी के माध्यम से किया है… लेकिन आज जनहित टाइम्स राजा महाराणा प्रताप के बारे में एकदम अलग और अनोखी कहानी पेश कर रहा है …

महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 ईस्वी को राजस्थान के कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ था… महाराणा प्रताप की जयंती विक्रमी संवत कैलेंडर के अनुसार प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष तृतीया को भी मनाई जाती है..
उनके पिता महाराणा उदयसिंह और माता जीवत कंवर या जयवंत कंवर थीं… वे राणा सांगा के पौत्र थे… महाराणा प्रताप को बचपन में सभी ‘कीका’ नाम लेकर पुकारा करते थे… राजपूताना राज्यों में मेवाड़ का अपना एक विशिष्ट स्थान है जिसमें इतिहास के गौरव बाप्पा रावल, खुमाण प्रथम, महाराणा हम्मीर, महाराणा कुम्भा, महाराणा सांगा, उदयसिंह और वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप ने जन्म लिया है…
खास बात है कि महाराणा प्रताप उदयपुर, मेवाड़ में सिसोदिया राजवंश के राजा थे… उनके कुल देवता एकलिंग महादेव, जिनका मंदिर उदयपुर में स्थित है… मेवाड़ के राणाओं के आराध्यदेव एकलिंग महादेव का मेवाड़ के इतिहास में बहुत महत्व है… मेवाड़ के संस्थापक बाप्पा रावल ने 8वीं शताब्दी में इस मंदिर का निर्माण करवाया और एकलिंग की मूर्ति की प्रतिष्ठापना की थी…
महाराणा प्रताप और अकबर की दुश्मनी की कहानियां तो आपने जरूर सुनी या पढ़ी होंगी… दरअसल, प्रताप के काल में दिल्ली में मुगल सम्राट अकबर का शासन था, जो भारत के सभी राजा-महाराजाओं को अपने अधीन कर मुगल साम्राज्य की स्थापना कर इस्लामिक परचम को पूरे हिन्दुस्तान में फहराना चाहता था… 30 वर्षों के लगातार प्रयास के बावजूद महाराणा प्रताप ने अकबर की आधीनता स्वीकार नहीं की, जिसकी आस लिए ही वह इस दुनिया से चला गया…
इतिहास के विश्लेषकों के मुताबिक महाराणा प्रताप प्रतिज्ञा कोई भंग नहीं कर सकता था…
एक बार महाराणा प्रताप ने भगवान एकलिंगजी की कसम खाकर प्रतिज्ञा ली थी कि जिंदगीभर उनके मुख से अकबर के लिए सिर्फ तुर्क ही निकलेगा और वे कभी अकबर को अपना बादशाह नहीं मानेंगे… अकबर ने उन्हें समझाने के लिए चार बार शांति दूतों को अपना संदेशा लेकर भेजा था लेकिन महाराणा प्रताप ने अकबर के हर प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया था…
महाराणा प्रताप की शक्ति और उनका घोड़े के चर्चे तो आज भी हर किसी के जुबान पर है… महाराणा प्रताप के पास उनका सबसे प्रिय घोड़ा ‘चेतक’ था… महाराणा प्रताप जिस घोड़े पर बैठते थे वह घोड़ा दुनिया के सर्वश्रेष्ठ घोड़ों में से एक था… ऐसा कहा जाता है कि महाराणा प्रताप तब 72 किलो का कवच पहनकर 81 किलो का भाला अपने हाथ में रखते थे। भाला, कवच और ढाल-तलवार का वजन कुल मिलाकर 208 किलो था… राणा 208 किलो वजन के साथ युद्ध के मैदान में उतरते थे… सोचिए तब उनकी शक्ति क्या रही होगी…
क्या आपके मन में ये सवाल गूंजा कि महाराणा प्रताप को गद्दी कैसे मिली, उनका राज्याभिषेक कब, कैसे और किसने किया… महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक गोगुंदा में हुआ था… युद्ध की विभीषिका के बीच राणा उदयसिंह ने चित्तौड़ त्याग कर अरावली पर्वत पर डेरा डाला और वहां उदयपुर के नाम से नया नगर बसाया जो उनकी राजधानी भी बनी… उदयसिंह ने अपनी मृत्यु के समय भटियानी रानी के प्रति आसक्ति के चलते अपने छोटे पुत्र जगमल को गद्दी सौंप दी थी… जबकि, प्रताप बड़े बेटे होने के कारण स्वाभाविक उत्तराधिकारी थे… उदयसिंह के फैसले का उस समय सरदारों और जागीरदारों ने भी विरोध किया था…
दूसरी ओर मेवाड़ की प्रजा भी महाराणा प्रताप से लगाव रखती थी… जगमल को गद्दी मिलने पर जनता में विरोध और निराशा उत्पन्न हुई… इसके चलते राजपूत सरदारों ने मिलकर विक्रम संवत 1628 फाल्गुन शुक्ल 15 अर्थात 1 मार्च 1576 को महाराणा प्रताप को मेवाड़ की गद्दी पर बैठाया… इस घटना से जगमल उनका शुत्र बन गया और अकबर से दोस्ती कर बैठा था…
महाराणा के मेवाड़ की राजधानी उदयपुर थी… उन्होंने 1568 से 1597 ईस्वी तक शासन किया… इतिहासकारों के मुताबिक मेवाड़ पर अकबर का आक्रमण मेवाड़ को जीतने के लिए अकबर ने कई प्रयास किए… अजमेर को अपना केंद्र बनाकर अकबर ने प्रताप के विरुद्ध सैनिक अभियान शुरू कर दिया… महाराणा प्रताप ने कई वर्षों तक मुगलों के सम्राट अकबर की सेना के साथ संघर्ष किया… प्रताप की वीरता ऐसी थी कि उनके दुश्मन भी उनके युद्ध-कौशल के कायल थे… उदारता ऐसी कि दूसरों की पकड़ी गई मुगल बेगमों को सम्मानपूर्वक उनके पास वापस भेज दिया था…
कहा जाता है वक्त हर एक की परीक्षा लेता है… राजा महाराणा प्रताप को भी अपने शासनकाल के दौरान कई विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था … हल्दीघाटी का युद्ध चल रहा था… महाराणा प्रताप का युद्ध के बाद का समय पहाड़ों और जंगलों में ही बीता… अपनी गुरिल्ला युद्ध नीति द्वारा उन्होंने अकबर को कई बार मात दी… महाराणा प्रताप चित्तौड़ छोड़कर जंगलों में रहने लगे… महारानी, सुकुमार राजकुमारी और कुमार घास की रोटियों और जंगल के पोखरों के जल पर ही किसी प्रकार जीवन व्यतीत करने लगे थे… अरावली की गुफाएं ही अब उनका आवास थीं और शिला ही शैया थी…
मुगल चाहते थे कि महाराणा प्रताप किसी भी तरह अकबर की अधीनता स्वीकार कर ‘दीन-ए-इलाही’ धर्म अपना लें… इसके लिए उन्होंने महाराणा प्रताप तक कई प्रलोभन संदेश भी भिजवाए, लेकिन महाराणा प्रताप अपने निश्चय पर अडिग रहे… प्रताप राजपूत की आन का वह सम्राट, हिन्दुत्व का वह गौरव-सूर्य इस संकट, त्याग, तप में अडिग रहे…
कई छोटे राजाओं ने महाराणा प्रताप से अपने राज्य में रहने की गुजारिश की लेकिन मेवाड़ की भूमि को मुगल आधिपत्य से बचाने के लिए महाराणा प्रताप ने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक मेवाड़ आजाद नहीं होगा, वे महलों को छोड़ जंगलों में निवास करेंगे… स्वादिष्ट भोजन को त्याग कंद-मूल और फलों से ही पेट भरेंगे, लेकिन अकबर का आधिपत्य कभी स्वीकार नहीं करेंगे… जंगल में रहकर ही महाराणा प्रताप ने भीलों की शक्ति को पहचानकर छापामार युद्ध पद्धति से अनेक बार मुगल सेना को कठिनाइयों में डाला था… प्रताप साधन सीमित होने पर भी दुश्मन के सामने सिर नहीं झुकाया…